जब अकेला होता हूँ
तो बहुत बोलता हूँ
लेकिन कोई सामने होता है
तो थोड़ा सोचता हूँ
की जो मैं कह रहा हूँ
क्या वो सही है
या फिर, जिससे मैं केहना चाहता था
क्या वो यही है।
अगर दिल से आवाज़ आया
तो बात आगे बढ़ी
नहीं तो हमारी बातें सुन के गाली जोर से पड़ी।
सब ने दिया उपदेश, सब ने दिया चिंतन
लेकिन कुच्छ होना था
कुच्छ और ही हो गया
क्यों के वो मेरे दिल ने किया मनन।
अब तो ज़िंदगी ऐसी है
मा की आशीर्वाद से ऐसी ही रहे
कुच्छ भी हो
उसकी बरदान से यूहीं मुस्कुराहट बनी रहे
मेरी बातों को ज्यादा एहमियत ना देते हुये
सब खुश और सलामत रहे।
महाप्रसाद मिश्रा